सोमवार (चंद्रमा) : व्रत विधि, कथा एवं आरती


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चन्द्रदेव का वर्ण गौर है। इनके वस्त्र, अश्व और रथ तीनों श्वेत हैं। ये सुन्दर रथ पर कमल के आसन पर विराजमान हैं। इनके सिर पर सुन्दर स्वर्ण मुकुट तथा गले में मोतियों की माला है। इनके एक हाथ में गदा है और दूसरा हाथ वर मुद्रा में है।

श्रीमद् भागवत के अनुसार चन्द्रदेव महर्षि अत्रि और अनसूया के पुत्र हैं। इनको सर्वमय कहा गया है। ये सोलह कलाओं से युक्त हैं। इन्हें अन्नमय, मनोमय, अमृतमय पुरूषस्वरूप भगवान् कहा जाता है। आगे चलकर भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्हीं के वंश में अवतार लिया था। इसी लिये वे चन्द्र की सोलह कलाओं से युक्त थे। चन्द्र देवता ही सभी देवता, पितर, यक्ष, मनुष्य, भूत, पशु-पक्षी और वृक्ष आदि के प्राणों का आप्यायन करते हैं।

प्रजापितामह ब्रह्मा ने चन्द्र देवता को बीज, औषधि, जल तथा ब्राह्माणों का राजा बना दिया। इनका विवाह अक्षिव्नी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी आदि दक्ष की सत्ताईस कन्याओं से हुआ। ये सत्ताईस नक्षत्रों के रूप में भी जानी जाती है।

महाभारत वन पर्व के अनुसार चन्द्रदेव की सभी पत्नियाँ शील और सौन्दर्य से सम्पन्न हैं तथा पतिव्रत-धर्म का पालन करनेवाली हैं। इस तरह नक्षत्रों के साथ चन्द्रदेवता परिक्रमा करते हुए सभी प्राणियों के पोषण के साथ-साथ पर्व, संधियों एवं विभिन्न मासों का विभाग किया करते हैं। पूर्णिमा को चन्द्रोदय के समय ताँबे के बर्तन में मधुमिश्रित पकवान यदि चन्द्रदेव को अर्पित किया जाय तो इनकी तृप्ति होती है। उससे प्रसन्न होकर चन्द्रदेव सभी कष्टों से त्राण दिलाते हैं। इनकी तृप्ति से आदित्य, विक्षव्देव, मरूद्रण और वायुदेव तृप्त होते हैं।

मत्स्यपुराण के अनुसार चन्द्रदेव का वाहन रथ है। इस रथ में तीन चक्र होतें हैं। दस बलवान् घोड़े जुते रहते हैं। सब घोड़े दिव्य अनुपम और मन के समान वेगवान् हैं। घोड़ों के नेत्र और कान भी श्वेत हैं। वे शंख के समान उज्जवल हैं। चन्द्रदेवता अक्षिव्नी, भरणी आदि सत्ताईस पत्नियाँ हैं। इनके पुत्र का नाम बुध है, जो तारा से उत्पन्न हुए हैं। चन्द्रमा के अधिदेवता अप् और प्रत्यधिदेवता उमा देवी हैं। इनकी महादशा दस वर्ष की होती है तथा ये कर्क राशि के स्वामी हैं। इन्हें नक्षत्रों का भी स्वामी कहा जाता है। नवग्रहों में इनका दूसरा स्थान है।


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