गोवर्धन पूजा


भारतीय संस्कृति में गौ से उत्तम कोई धन नहीं माना गया है। सृष्टि के प्रभात से लेकर आज तक हम गाय को अतीव आदरणीय समझकर उसे माता कहते आये हैं। हिन्दू घरों में जिस समय दिन का पहला भोजन बनता हैं उस समय गृहदेवियां तवे की प्रथम रोटी गौ के लिए निकालती हैं। गौ का दूध, दही, छाछ, मक्खन और घी हमारी देह के लिए कितना उपयोगी है, सभी जानते हैं गाय अपने मूत्र, गोबर, हाड, चर्म इत्यादि से हमारा अमित उपकार करती है। गाय के पुत्र बैल हमारी कृषि- आधारित जीविका का आधार है। गाय, बैल और उनके गोवर का मान रखने के लिए हमारे यहां दीवाली के अगले दिन पडवा (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा) को गोबरधन' 'गोधन' अथवा 'गोवर्धन' का त्यौहार मनाया जाता है। यह कृषि की गौरव गरिमा बढ़ानेवाला राष्ट्रीय त्यौहार है। हिन्दी पट्टी के राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में इसका महत्व दीवाली से ज्यादा है। उत्तर और मध्य भारत के गांवों में इस दिन गोबर से बने गोवर्धन और सजे-धजे पशुधन की उत्साह एवं उमंग से पूजा की जाती है। हमारी माता-बहनें आंगन में कई दिनों के एकत्र किये हुए गोबर से मानव-आकृति की तरह = गोवर्धन बनाती हैं। गोवर्धन के पुतले के चारों तरफ गाय, वछड़े, हल, बैल, चूल्हे-चक्की और रुई एवं बिलोणी इत्यादि की आकृतियां बनायी जाती हैं। इनके चारों तरफ गोबर की भीत (दीवार) बनाकर द्वार पर खाट समेत ग्वाला बिछाया जाता है । ग्वाले के हाथ में लाठी थमायी जाती है और उसके आगे हुक्का रखा जाता है । फल और भोजन भी यथास्थान रखे जाते हैं।

हरियाणा और ब्रज की परम्परा

हरियाणा और ब्रज में श्रीकृष्ण और पांच पांडवों की आकृतियां बनाने की भी परम्परा है। देश के आदिवासी इलाकों में स्थानीय लोक एवं कुल देवताओं की आकृतियां बनाने की रीत है। कहीं-कहीं गोबर का ढेर बनाकर तथा उस पर वृक्षों की टहनियां अटकाकर उसे पहाड़ की शक्ल दे दी जाती है शाम को घी का दीया जलाकर गोवर्धन की पूजा की जाती है तथा प्रसाद बांटा जाता है। भारत के प्रत्येक राज्य में किसी न किसी रुप में गावधन के जरिए गौ एवं बैल-पूजन का विधान है।

भारतीय संस्कृति में गौ से उत्तम कोई धन नहीं माना गया है। सृष्टि के प्रभात से लेकर आज तक हम गाय को अतीव आदरणीय समझकर उसे माता कहते आये हैं। हिन्दू घरों में जिस समय दिन का पहला भोजन बनता हैं उस समय गृहदेवियां तवे की प्रथम रोटी गौ के लिए निकालती हैं। गौ का दूध, दही, छाछ, मक्खन और घी हमारी देह के लिए कितना उपयोगी है, सभी जानते हैं गाय अपने मूत्र, गोबर, हाड, चर्म इत्यादि से हमारा अमित उपकार करती है। गाय के पुत्र बैल हमारी कृषि- आधारित जीविका का आधार है। गाय, बैल और उनके गोवर का मान रखने के लिए हमारे यहां दीवाली के अगले दिन पडवा (कार्तिक शुक्ल

प्रतिपदा) को गोबरधन' 'गोधन' अथवा 'गोवर्धन' का त्यौहार मनाया जाता है। यह कृषि की गौरव गरिमा बढ़ानेवाला राष्ट्रीय त्यौहार है। हिन्दी पट्टी के राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में इसका महत्व दीवाली से ज्यादा है। उत्तर और मध्य भारत के गांवों में इस दिन गोबर से बने गोवर्धन और सजे-धजे पशुधन की उत्साह एवं उमंग से पूजा की जाती है। हमारी माता-बहनें आंगन में कई दिनों के एकत्र किये हुए गोबर से मानव-आकृति की तरह = गोवर्धन बनाती हैं। गोवर्धन के पुतले के चारों तरफ गाय, वछड़े, हल, बैल, चूल्हे-चक्की और रुई एवं बिलोणी इत्यादि की आकृतियां बनायी जाती हैं। इनके चारों तरफ गोबर की भीत (दीवार) बनाकर द्वार पर खाट समेत ग्वाला बिछाया जाता है । ग्वाले के हाथ में लाठी थमायी जाती है और उसके आगे हुक्का रखा जाता है । फल और भोजन भी यथास्थान रखे जाते हैं।

परंपरा यथावत

हरियाणवी अंचल के साथ-साथ भोजपुर, मिथिला मगध, अवध, कन्नौज, ब्रज, शेखावटी, हारड़डौती, मेवाड़, मारवाड़, कुमाऊं, गढ़वाल, बघेलखंड, बुंदेलखंड, मालवा तथा निमाड़ और छत्तीसगढ़ में बैल-पूजन की यह परंपरा अभी भी यथावत है। मगधी की बहनें इस दिन गोधन कूटती हैं। आंगन में मिट्टी का चोकोर घर बनाती हैं। घर के चारों कोनों पर चार छोटे-छोटे घर बनाये जाते हैं, जिनमें कसैली एवं बजरी रखते हैं । सूप, सिलौटा, लोढ़ा, उगरा आदि को गोबर से बनाकर चौकोर घर में रखा जाता है । घर के बीचों-बीच मिट्टी का यमराज रखकर उसकी छाती पर ईंट रखी जाती है। कहने के बाद पूजा की जाती है।

अवध की परम्परा

अवध में गोबर के गोधना-गोधनी बनाये जाते हैं। गोधनी में दूध तथा गोधना में चावल रखे जाते हैं । दोनों के बीच एक पुतला खड़ा करके उसके चारों तरफ दूध-दुधारी, रुटिहारी, पीसनेवाली, ओखली, दौरैतियां एवं गौर महादेव की आकृतियां बनायी जाती हैं। 'जगाये चावलों' पर भी घी का दीया जलाते हैं। सुबह चिड़िया जगने से पहले चावल का आटा पीसकर एवं उसमें दूध, घी, शक्कर मिलाकर एक चिड़िया बनायी जाती है । उसकी पीठ पर चावल के आटे का दीपक रखकर पूजा की जाती है। पूजन के बाद चिड़िया का सिर तोड़कर उसे पैरों तले दबा दिया जाता है। शाम को यह पूजा मिटाकर गोवर्धन बनाकर उसमें छेद करके दीया जलाया जाता है। ब्रज में इस पूजा को 'अन्नकूट' कहते आंगन में गिरिराज-गोवर्धन की मानवाकृति बनाकर उसका एक हाथ ऊपर की ओर किया जाता है जो कृष्ण के गोवर्धन धारण का प्रतीक है। गोबर की इस आकृति के साथ ग्वालिन, गूजरी, रुई, मथनिया, चक्की, चूल्हा आदि की आकृतियां बनाकर उनकी पूजा व परिक्रमा की जाती है। घंटा- घड़ियाल बजाकर आरती उतारी जाती है। 'होरो' नामक गीत गूंजता है। यम द्वितीया को स्त्रियां गोबर की 'गौर' बनाकर भैया-दूज का थापा तैयार करती हैं। छह दिन बाद 'गोपाष्टमी' को गायों को नहला-धुलाकर उनका श्रृंगार किया जाता है। हाड़ौती के किसान गोवर्धन को 'बैलों की दीवाली' कहते हैं। लक्ष्मी पूजने वाले दिन हाली बैलों को नहलाते हैं। स्त्रियां उन्हें मेंहदी लगाती हैं। सींगों को वार्निश से पोतकर गले में घूंघरमल, पट्टे, मोहर और माथे पर 'मुखारबा' बांधा जाता है। गोवर्धन वाले दिन हाली बैलों को खजूर के पत्तों से बना मुकुट बांधते हैं। बैलों की आरती उतारकर उन्हें शुद्ध देशी घी की पूड़ियां खिलाते हैं। स्त्रियां बैल पूजन के गीत गाती हैं। इन गीतों को 'हीड़ गीत' कहा जाता है।

हीड़ का अपना लोकरंग

'हीड़' का अर्थ 'उल्का' या प्रकाश है। हीड़ का अपना लोकरंग हैं। लक्ष्मीपूजन के बाद हीड़ को डंडे में प्रस्थापित कर अड़ोस-पड़ोस व सगे-संबंधियों के यहां ले जाया जाता है। हीड़ लगाने वाले को मिठाई मिलती है और हीरा पाने वाला 'जिमना' करवाता है। ठेठ हाड़ौती में गाये जाने वाले हीड़ गीतों में बैलों के प्रति अपार कृतज्ञता झलकती है। पूजा के बाद रात्रि के समय बैलों को 'मंगाल' अर्थात् तोरण के नीचे से निकाला जाता है ताकि वे हारी-बीमारी से दूर रहें।

गढ़वाल की परम्परा

मेवाड़ में ब्रज की भांति नाथद्वारा के अन्नकूट पर्वत पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है । गढ़वाल हिमालय के किसान 'हरिबोधिनी' अर्थात छोटी दीवाली के दिन बैलों की पूजा करते हैं। यह बग्वाल (दीवाली) के दिन ग्यारह दिन बाद आती है। कुमाऊं में गोवर्धन के दिन तो पशुओं की पूजा की ही जाती है, चैत महीने में फूलदेई (अन्न-धन की समृद्धि का त्यौहार) के समय 'हलजोतों' अथात हल चलाने का शुभ मुहूर्त भी निकाला जाता है।

बुंदेलखंड में राजा के विरुद्ध सामान्य जन की प्रतिष्ठा का त्यौहार होने के कारण गोवर्धन बेहद लोकप्रिय हैं। इस दिन घर के सहन में गोबर से गाय, ग्वाला, गोवर्धन एवं खेत क्यार आदि बनाये जाते हैं। मिट्टी की हंडिया में पकवान भरकर गोवर्धन की परिक्रमा के साथ पूजन पूरा किया जाता है। मालवा में पशुधन की समृद्धि के लिए 'आखा तीज' (वैशाख शुक्ल तृतीया) और दीवाली के दूसरे दिन 'गोरधन' मनाने की प्रथा है। गोरधन पूजन के मौके पर 'गोरधन-चंद्राबली' गीत गाया जाता है। इस गीत की कथा के नायक नंद के दुलारे श्रीकृष्ण हैं। कृष्ण, गूजरों के घर दही मांगने गये थे। रात उन्हें चन्द्रावली के घर काटनी पड़ती है। चंद्रावली का पति रात को गाय की टक्कर लगने से मर जाता है। कृष्ण उसे जीवित कर देते हैं गोबर का गोरधन यहां बड़े आकार का थापा जाता है।

'सुहाग पड़वा' के रुप में भी प्रसिद्ध

स्त्रियां इस त्यौहार को 'सुहाग पड़वा' के रुप में भी मनाती हैं। यहां गोरधन की आकृति को पशुओं के खुरों तले कुचलवाया जाता है। छत्तीसगढ़ में गौवंश-पूजा का त्यौहार 'मड़ई' है, जो कार्तिक एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक चाव से मनाया जाता है। एकादशी के दिन सर्वप्रथम अर्जुन, कदंब अथवा चंपक वृक्ष की बीस हाथ लम्बी लकड़ी पर लाल कपड़ा लपेटकर इसे डोरियों के सामने खड़ा करते हैं। इसे बेल-बूटों व फूलमाला आदि से सजाकर ऊपरी भाग में ध्वल-उज्ज्वल छत्र चढ़ाया जाता है। कई घंटों में बंटे इस स्तम्भ के प्रत्येक हिस्से में एक एक रंगीन झंडा लहराया जाता है। खलिहान में एकत्र की गई खरीफ की फसल की सुरक्षा के लिए शुरु किया गया यह त्यौहार छत्तीसगढ़ में परंपरागत ढंग से मनाया जाता है। ग्वाले, यजमानों के घर नाच गाना करते हैं और बदले में अन्न-वस्त्र आदि उप स्वरूप पाते हैं।

इस तरह गोवर्धन समय तथा प्रकृति की देन के रूप में हमारे साथ चला आ रहा है। गौवंश से प्राप्त सुख को हम बार-बार दुहराना चाहते हैं। इसी कारण प्रतिवर्ष गोवर्धन मनाते हैं।

कृषक संस्कृति में बैलों का महत्व

गौवंश के साथ युग-युग का इतिहास बड़ा है। बैलों द्वारा खेती संभवत: उतनी ही पुरानी है जितना स्वयं मानवता का इतिहास । कृषक-संस्कृति में बैलों का काफी ऊंचा स्थान रहा हैं । बैलों के सहारे मानव की अनगिनत पीढ़ियां पालित और पोषित होती आयी हैं हड़प्पा (मांटगुमरी) और मोहनजोदड़ो (लरकाना, सिंध) की खुदाई से प्राप्त सामग्री द्वारा ईसा से चार-पांच हजार पुरानी भारतीय आर्यों की खेती और उनके पशुधन की स्थिति पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। भारतीय कृषि जगत में बैलों का भारी महत्व है। किसान के लिए बैल, धन, वैभव, परिवार और समृद्धि सब कुछ हैं। वे किसान के आत्मीय जीवनसाथी हैं। ट्रैक्टर से जितना हमें मिलता है, वह उससे दस गुणा खाता है पर बैल एक गठड़ी भूसे के बदले छाती फाड़कर कमाते हैं।

बैल हमारे पूर्वजों की विरासत हैं। बैलों को बिसारकर हम कदापि सुखी नहीं रह सकते। अकेले बैल के कंधे पर जुआ रखना स्वयं नरक में गिरना है। बैलों को समझिए, उन्हें सुनिए। सुंदर एवं सुडौल वृषभों को देखकर धरती माता प्रसन्न होती है और किसान के भाग्य को सराहती हुई उसके घर को धन-धान्य से भर देती हैं। अत: बैलों की सेवा करके उन्हें सुखी रखिए।



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