जाति,धर्म एवं लिंग भेद का कोई स्थान इस होली के त्योहार में नहीं होता। होलिका दहन से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं। होली का हर रंग जीवन में एक नई उमंग लाता हैं, जीवन में एक नयी शक्ति का संचार करता है। आपस में सब भेद भूल, प्रेम की एक नई परिभाषा देता है।
लेकिन कुछ लोग इस महान उत्सव को बुराई का उत्सव भी बना डालते है, इस दिन वो अपने वैर-भावों का हिसाब लेते हैं, नशा, जुआ, छेड़कानी का मौका ढूढँते हैं। वे स्वयं 'होलिका' जैसी बुराई का प्रतीक बन जाते है। हमें चाहिए कि इन बुराईयों को समाज से दूर करें और धर्म के सुनहरे रंगों को समाज के हर कोने में फैलाये।
दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने अपने विष्णु भक्त पुत्र प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए लेकिन वो कभी भी सफल नही रहा तो उसने प्रह्लाद को अपनी बहन होलिका को सौंप दिया। होलिका को वरदान मिला हुआ था कि अग्नि उसे जला न सकेगी। होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि के बीच जा बैठी। देवयोग से होलिका जल कर भस्म हो गई और प्रह्लाद जीवित बच गया। तभी से होली जलाने की परंपरा चल पड़ी, क्योंकि इसमें होलिका के रूप में बुराइयों को खत्म करने का महत्व छिपा हुआ है।
ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध भी इसी दिन किया था। इसी खुशी में होली का का त्योहार वृदांवन में मनाया जाता है। इसी पूर्णिमा को उन्होंने गोप और गोपियों के साथ रासलीला रचाई और दूसरे दिन रेग खेलने का उत्सव मनाया। ब्रज की होली आज भी प्रसिद्ध है।
होली में लोग रंगों से बदरंग चेहरो और कपड़ों के साथ जो अपनी वेशभूषा बनाते हैं, यह भगवान् शिव के गणों की है। उनका नाचना, गाना, हुड़दंग मचाना शिव की बारात का दृश्य उपस्थित करता है। इसलिए होली का संबंध भगवान् शिव से भी जोड़ा जाता है।
पूजन विधि
यह त्योहार फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी पर्यंत आठ दिन होलाष्टक रूप में मनाया जाता है और पूर्णिमा को सम्पन्न होता है। इस प्रकार बंसत पंचमी से शुरू होकर यह पूर्णिमा तक चलता है। इस दिन गंध, पुष्प, नैवेद्य, दक्षिणा और फलों में नाममंत्र से होली का विधिवत् पूजन किया जाता है। योनि नामक मंत्र को जोर से उच्चारित कर पूजन करे। जलती होली में गेंहू, चने और जौ की बालों को भूनने का भी विधान है। कुछ श्रद्धालु होली की अग्नि से घर में बनाई गई होली को जलाते हैं तो कुछ होली की भस्म घर ले जाते हैं।