संपूर्ण भारत में भाद्रपद मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म बड़ी श्रद्धा और धूमधाम
से मनाया जाता है। इस दिन श्रीकृष्ण ने रोहिणी नक्षत्र में अर्धरात्रि को मथुरा में माता देवकी की कोख से जन्म
धारण करके पापी कंस का संहार किया और भक्तों की रक्षा कर उनका उद्धार किया था। इस दिन लोग उपवास
रखते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि श्रीहरि के अवतरण काल में अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए।
श्रीब्रह्मवैवर्त पुराण में सावित्री द्वारा पूछने पर धर्मराज ने बताया कि भारत वर्ष में रहने वाला जो भी प्राणी
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह सौ जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है। वह दीर्घकाल तक बैकंुठ लोक
में आनंद भोगता है, फिर उत्तम योनि में जन्म लेने पर उसे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न हो जाती है।
श्रीपद्म पुराण के अनुसार जो कोई भी मनुष्य इस व्रत को करता है, वह इस लोक में अतुल ऐश्वर्य की प्राप्ति
करता है और इस जन्म में जो उसका अभीष्ट होता है, उसे भी प्राप्त कर लेता है। ‘श्रीविष्णु रहस्य’ में लिखा है
कि भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रोहणी नक्षत्र में व्रत करने से उसका महान् फल मिलता है। यदि उस दिन बुधवार
हो, तो उसके विशेष फल का तो कहना ही क्या ? यदि ऐसी अष्टमी नवमी के साथ संयुक्त हो, तो कोटि कुलों
की मुक्ति देने वाली होती है। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को
विधि-विधिानानुसार करता है, उसके समस्त पाप स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं और उसे मृत्यु के उपरातं बैकुंठ लोक
में स्थान मिलता है। यही बात शास्त्रों में भी कही गई है।
पूजन: यह व्रत भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इस
दिन प्रातःकाल दैनिक नित्यकर्मों, स्नानादि से निवृत्त होकर व्रती को यह संकल्प लेना चाहिए कि मैं श्रीकृष्ण
भगवान् की प्रीति के लिए और अपने समस्त पापों के शमन के लिए प्रसन्नता पूर्वक जन्माष्टमी के दिन उपवास
रखकर व्रत को पूर्ण करूंगा। अर्धरात्रि में पूजन करने के पश्चात् दूसरे दिन भोजन करूंगा। व्रती को इस दिन यम
नियमों का पालन करते हुए निर्जल व्रत रखना चाहिए। व्रत के दिन घरों और मंदिरों में भगवान् श्रीकृष्ण के
भजन, कीर्तन उनकी लीलाओं के दर्शन होते रहते हैं। संध्या के समय भगवान् के लिए झूला बनाकर बालकृष्ण
को उसमें झुलाया जाता है। आरती के बाद दही, माखन, पंजीरी व उसमें मिले सूखे मेवे का मिला प्रसाद भोग
लगाकर भक्तों में बांटा जाता है। दूसरे दिन ब्राह्मणों को प्रेम से भोजन करा कर, स्वयं करें। साथ में
दान-दक्षिणा की रस्म पूरी करें, ताकि व्रत पूरा हो जाए।
कथा: बात द्वापर युग की है। मथुरा नगरी में राजा उग्रसेन का राज्य था। उनका पुत्र कंस परम प्रतापी होने के
बावजूद अत्यंत निर्दयी स्वभाव का था। उसने भगवान् के स्थान पर स्वयं की पूजा करवाने के लिए प्रजा पर
अनेक अत्याचार किए। यहंा तक कि पिता को कारागार में बंद कर उनके राज्य की बागडोर स्वयं संभाल ली।
उसके पापाचार और अत्याचारों से दुखी होकर पृथ्वी गाय का रूप धारण कर ब्रह्माजी के पास पुहंची, तो उन्होंने
गाय और देवगणों को क्षीरसागर भेज दिया, जहां भगवान् विष्णु ने यह सब जानकर कहा-”मैं जल्द ही ब्रज में
वासुदेव की पत्नी और कंस की बहन देवकी के गर्भ से जन्म लूंगा। तुम लोग भी ब्रज में जाकर यादव कुल में
अपना शरीर धाराण करो।“
जब वासुदेव और देवकी का विवाह हो चुका, तो विदाई के समय आकाशवाणी हुई-”अरे कंस! तेरी बहन का
आठवंा पुत्र ही तेरा काल होगा।“ कंस यह सुनते ही क्रोधित होकर देवकी का वध करने पर उतारू हुआ।
वासुदेव ने प्रार्थना करते हुए कहा कि वे अपनी सारी संतानें स्वतः ही उसे सौंप देंगे। इस पर कंस ने उनके वध
करने का विचार त्याग कर उन्हें कारागार में डलवा दिया। देवकी को एक-एक करके सात संतानें हुईं, जिन्हें कंस
ने मार डाला। भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रात्रि 12 बजे जब भगवान् विष्णु ने कृष्ण के रूप में जन्म
लिया, तो चारों ओर दिव्य प्रकाश फैल गया और उसी वक्त आकाशवाणी हुई कि शिशु को गोकुल ग्राम में नंद
बाबा के घर भेज कर उसकी कन्या को लाने की व्यवस्था कर जाए। वासुदेव ने बालक को जैसे ही उठाया, तो
उनकी बेड़ियां खुल गईं। सभी पहरेदार सो गए और कारागार के सातों दरवाजे अपने आप खुल गए। मूसलाधार
वर्षा होने के कारण यमुना में बाढ़ आई हुई थी, फिर भी वासुदेव के यमुना में पहुंचने पर रास्ता बन गया और नागराज ने वर्षा से बालक की रक्षा की। ब्रज में जाकर वासुदेव ने यशोदा, जो रात्रिकाल में सोई हुई थीं, के निकट श्रीकृष्ण को सुलाकर, मँा यशोदा की नवजात बालिका को वापस कारागार में ले आए। अंदर आते ही सारे दरवाजे अपने आप बंद हो गए। सब कुछ पहले जैसा ही हो गया। देवकी और वासुदेव के पैरों में बेड़ियाँ पड़ गईं और पहरेदार जाग गए। कंस ने आठवीं संतान का समाचार सुना, तो कंस कारागार में पहंुचा। देवकी की गोद से बालिका को छीनकर उसे मारने के लिए जैसे ही कंस ने उस कन्या को उठाया, तभी वह हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई। आकाश से कन्या ने कहा-‘दुष्ट कंस! मुझे मारने से क्या लाभ तेरा संहारकर्ता तो पैदा हो चुका है।’ यह सुनकर कंस ने खोज-बीन कर पता लगा ही लिया कि मेरा शत्रु गोकुल में नंद गोप के यंहा पल रहा है। उसका वध कराने के लिए कंस ने कई राक्षस और असुरों को भेजा, पर उन सबका संहार भगवान्
कृष्ण ने कर दिया। बचपन में उनकी अलौकिक लीलाओं ने सबको चकित कर दिया था। बड़े होने पर कृष्ण ने
कंस का वध करके प्रजा को भय और आतंक से मुक्ति दिलाई। अपने नाना उग्रसेन को फिर से राजगद्दी पर
बैठाया तथा अपने माता-पिता को कारागार से छुड़ाया।