शश्री सूतजी बोले, ‘उस व्यापारी ने अपने दामाद के साथ शुभ मुहूर्त में नावों द्वारा रत्नसारपुर से प्रस्थान
किया। लंबी यात्रा करने के बाद व्यापारी ने एक नगर के किनारे नावों को रोककर भोजन किया और
फिर दोनों विश्राम करने लगे। तभी श्री सत्यनारायण भगवान् साधु के रूप में व्यापारी के पास पहुँचे
और पूछा, ‘हे वणिक! तेरी नावों में क्या सामान लदा हुआ है?’ व्यापार ने मन-ही-मन सोचा, दण्डी
साधु अवश्य ही कुछ मांगने की इच्छा से सामान के बारे में पूछ रहा है। यह सोचकर व्यापारी ने झूठ
बोला, ‘हे दण्डी स्वामी। मेरी नावों में तो बेल और पत्र(पत्ते) भरे हुए हैं।’ व्यापारी के झूठे वचन सुनकर
श्री सत्यनारायण भगवान् ने क्रोधित होते हुए कहा, ‘हे वैश्य! जो तुमने कहा है, वही सत्य होगा।’ इतना
कहकर श्री सत्यनारायण भगवान् कुछ दूर जाकर अंतर्धान हो गए। उधर व्यापारी दण्डी साधु को खाली
हाथ लौटाकर बहुत प्रसन्न हुआ। लेकिन जब व्यापारी ने अपनी नावों में बेल और पत्र(पत्ते) भरे हुए
देखे तो वह जोर-जोर से विलाप करने लगा और मन-ही-मन अपने झूठ बोलने पर प्रायश्चित करने
लगा। रोते-रोते व्यापारी मूचर््िछत हो गया। कुछ देर बाद जब उसकी मूच्र्छा नष्ट हुई तो वह फिर विलाप
करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा, ‘आप इतने दुखी मत होइए। यह सब उन दण्डी साधु के शाप
के कारण हुआ है। अब वही दण्डी महाराज हमें इस विपत्ति से छुटकारा दिला सकते हैं। दामाद के
वचन सुनकर व्यापारी दण्डी साधु की तलाश में चल दिया। कुछ देर ढ़ूंढ़ने पर उसे एक वृक्ष के नीचे
दण्डी साधु के रूप में सत्यनारायण भगवान् मिल गए। व्यापारी ने दण्डी साधु के चरणों में गिरकर झूठ
बोलने की क्षमा मांगी। दण्डी स्वरूप सत्यनारायण भगवान् बोले, ‘हे वणिक-पुत्र! तेरे बार-बार झूठ बोलने
के कारण ही मैनें तुझे इतना दण्ड दिया है। तूने बार-बार सत्यनारायण भगवान् अर्थात् मेरी पूजा करने
के लिए कहा, लेकिन कभी पूजा की नहीं।’ व्यापारी ने तब हाथ जोड़कर कहा, ‘हे भगवन्! आप तो
दीन-दुखियों के कष्ट दूर करने वाले हैं। सबकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। मेरी इस गलती को भी क्षमा
करें। आपके रूप को तो ब्रह्मा भी नहीं जान पाते। फिर मैं अज्ञानी भला कैसे आपकी लीला को समझ
पाता। अब मैं जीवन में कभी झूठ नहीं बोलूंगा। सदैव श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत और पूजा किया
करूंगा। आप मुझ पर अनुकम्पा करें।’ व्यापारी की क्षमा-याचना सुनकर दण्डी साधु ने उसे क्षमा कर
दिया। उसी समय व्यापारी की नावों में भरे हुए बेल और पत्ते धन-धान्य में परिवर्तित हो गए। व्यापारी
ने अपने सेवकों के साथ अगले दिन श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करके उनकी पूजा की। सबको
प्रसाद वितरित करके स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। उसके बाद व्यापारी ने अपने नगर की ओर प्रस्थान
किया।
अपने नगर में पहुँचकर व्यापारी ने एक सेवक को अपने घर भेजा। सेवक ने उसके घर पहुँचकर
लीलावती को सूचित किया। उस समय लीलावती और कलावती दोनों श्री सत्यनारायण भगवान् की पूजा
कर रही थीं। पति और दामाद के लौट आने का समाचार सुनकर लीलावती ने पूजा पूरी करके प्रसाद
ग्रहण करने के बाद कलावती से कहा, ‘बेटी! मैं नदी किनारे जा रही हूं। तू घर का काम पूरा करके आ
जाना।’ कहकर लीलावती नदी की ओर चल पड़ी। परन्तु कलावती पति से मिलने की खुशी में प्रसाद
ग्रहण किए बिना हीघर से निकलकर नदी किनारे जा पहुँची। उसके प्रसाद ग्रहण न करने के कारण
सत्यनारायण भगवान् क्रोधित हो उठे। उन्होंने व्यापारी की नावों को नदी में डुबो दिया। अपने पति को
वहां न देख कलावती ने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। तब व्यापारी ने कहा, ‘पुत्री! अवश्य ही
तुझसे कोई भूल हुई है। उस भूल के कारण श्री सत्यनारायण भगवान् ने तुझे दण्ड दिया है।’ तब
व्यापारी ने सत्यनारायण भगवान् से प्रार्थना की, ‘हे भगवन्! मेरे परिवार के किसी स्त्री-पुरुष से कोई
भूल हुई हो तो उसे अवश्य क्षमा कर देना।’ तभी आकाशवाणी हुई, ‘हे वणिक-पुत्र! तेरी कन्या मेरा
प्रसाद ग्रहण किए बिना ही चली आई है। यदि अब घर पहुँचकर तेरी कन्या प्रसाद ग्रहण करके वापस
आए तो उसे पति के दर्शन होंगे और डूबी हुई नावें भी जल के ऊपर आ जाएंगी।’ कलावती ने वैसा
ही किया। उसके प्रसाद ग्रहण करके वापस लौटने पर नावें जल के ऊपर आ गईं। दामाद भी सुरक्षित
नदी से निकल आया। घर लौटकर व्यापारी ने अपने परिवार और बंधु-बाधंवों के साथ मिलकर
विधिनुसार श्री सत्यनारायण भगवान् की पूजा की। उसकी सभी मंगलकामनाएं पूरी हुईं और वह
आनंदपूर्वक जीवन-यापन करता हुआ विष्णुलोक को चला गया।’