श्री सूतजी बोले, ‘हे ऋषि-मुनियों! अब मैं आपको आगे की कथा सुनाता हूं। प्राचीन समय में कनकपुर
में उल्कामुख नामक एक बुद्धिमान तथा सत्यवादी राजा राज करता था। वह प्रतिदिन मंदिर में जाकर श्री
सत्यनारायण भगवान् की पूजा करता था और निर्धनों को अन्न, वस्त्र और धन दान करता था। उसकी
पत्नी सुभद्रा बहुत सुशील थी। वे दोनों हर महीने श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करते थे। श्री
सत्यनारायण की अनुकम्पा से उनके महल में धन-सम्पत्ति के भण्डार भरे थे। उनकी सारी प्रजा बहुत
आनंद से जीवन-यापन कर रही थी। एक बार राजा और रानी बहुत-से लोगों के साथ जब भद्रशीला
नदी के किनारे श्री सत्यनारायण भगवान् की पूजा कर रहे थे, तो नदी के किनारे एक बड़ी नौका आकर
ठहरी। उस नाव में एक धनी व्यापारी यात्रा कर रहा था। वह बहुत-सा धन कमाकर अपने नगर को
लौट रहा था। उसका सारा धन उस नाव में रखा हुआ था।
नाव से उतरकर व्यापारी राजा के समीप पहुंचा। राजा को पूजा करते देख उसने कहा, ‘हे राजन! आप
इन सब लोगों के साथ मिलकर किसकी पूजा कर रहे हैं? इस पूजा के करने से मनुष्य को क्या लाभ
होता है?’ राजा ने व्यापारी से कहा, ‘हम हर पूर्णिमा को सत्यनारायण भगवान् का व्रत करते हैं और
फिर पूजा-अर्चना के बाद भगवान् का प्रसाद लोगों में बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करते हैं। श्री
सत्यनारायण भगवान् की पूजा से निस्सन्तान को सन्तान की प्राप्ति होती है। दुखियों के दुख दूर होते हैं।
राजा की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, ‘हे राजन्! मैं भी सत्यनारायण भगवान् का व्रत करना चाहता
हूं। कृपया मुझे इस व्रत को करने की पूरी विधि बतलाएं।’ राजा ने व्यापारी को सत्यनारायण व्रत की
पूरी विधि बताई। राजा ने व्रतकथा सुनने के बाद व्यापारी को भी प्रसाद दिया। श्री सत्यनारायण
भगवान् का स्मरण करते हुए व्यापारी ने प्रसाद ग्रहण किया और वापिस लौटकर अपनी पत्नी लीलावती
से कहा, ‘हमारी कोई सन्तान नहीं है। कनकपुर के राजा उल्कामुख ने मुझे बताया है कि श्री
सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने और उनकी कथा सुनने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
यदि सत्यनारायण भगवान् की अनुकम्पा से हमारे कोई सन्तान हुई तो मैं भी श्री सत्यनारायण भगवान्
का व्रत अवश्य करूंगा।’ व्यापारी के ऐसा निश्चय करने के कुछ समय बाद लीलावती गर्भवती हुई। दसवें
महीने में उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। व्यापारी ने पुत्री जन्म पर बहुत खुशियां मनाई, लेकिन
सत्यनारायण भगवान् का व्रत नहीं किया। जब उसकी पत्नी लीलावती ने अपने पति से श्री सत्यनारायण
भगवान् का व्रत करने के लिए कहा तो वह बोला, ‘अभी क्या जल्दी है। मैं इधर व्यापार में बहुत व्यस्त
हूँ। मुझे अभी फुर्सत नहीं हैं। जब अपनी बेटी बड़ी हो जाएगी और इसका विवाह होगा तो मैं अवश्य
श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करूंगा।’ अपने पति के वचन सुनकर लीलावती चुप रह गई। व्यापारी
की कन्या कलावती शुक्लपक्ष के चंद्रमा की तरह तेजी से बड़ी होने लगी। पलक झपकते ही 16 वर्ष
बीत गए। एक दिन व्यापार में बहुत-सा धन कमाकर घर लौटे व्यापारी ने अपनी बेटी को सहेलियों क
साथ उपवन में घूमते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। व्यापारी ने कलावती के लिए
सुयोग्य वर ढ़ूंढ़ने के लिए अपने सेवकों को दूर-दूर के नगरों में भेजा। व्यापारी के सेवक कंचनपुर नगर
में पहुंचे। उस नगर में उन्होंने एक वणिक-पुत्र को देखा। वणिक का बेटा अत्यन्त सुंदर और गुणवान्
था। सेवकों ने वापस लौटकर व्यापारी को उस वणिक के बेटे के बारे में बताया।
व्यापारी उस सुंदर लड़के को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और कलावती का विवाह बहुत धूमधाम से उसके साथ कर दिया।
दहेज में उसने वणिक-पुत्र को बहुत-सा धन दिया। कलावती का विवाह भी हो गया, लेकिन व्यापारी ने
श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत नहीं किया। लीलावती ने अपने पति से कहा, ‘नाथ! आपने कलावती
के विवाह पर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने का निश्चय किया था। अब तो आपको व्रत कर
लेना चाहिए।’ पत्नी की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, ‘अभी तो मैं अपने दामाद के साथ व्यापार के
लिए जा रहा हूँ। व्यापार से लौटने के बाद श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत-पूजा अवश्य करूंगा।’ यह
कहकर व्यापारी ने कई नावों में सामान भरा और अपने दामाद तथा सेवकों के साथ व्यापार के लिए
निकल पड़ा। उस व्यापारी द्वारा बार-बार व्रत करने का निश्चय और फिर व्रत न करने से सत्यनारायण
भगवान् क्रोधित हो गए और व्यापारी को दण्ड देने का निश्चय किया। व्यापारी अपने दामाद के साथ
रत्नसारपुर में पहुंचकर व्यापार करने लगा। एक दिन कुछ चोर महल में चोरी करके भाग रहे थे।
सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। भागते हुए चोरों ने सैनिकों से बचने के लिए चोरी का धन अवसर
पाकर व्यापारी की नावों में छिपा दिया। खाली हाथ चोर आराम से भाग गए। चोरों का पीछा करते हुए
सैनिक व्यापारी के पास पहुँचे। उन्होंने व्यापारी की नावों की तलाशी ली तो उन्हें राजा का चोरी किया
गया धन मिल गयां तब सैनिक व्यापारी और उसके दामाद को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए। राजा
ने उन दोनों को बंदीगृह में डाल दिया और उनका सारा धन ले लिया।
श्री सत्यनारायण के प्रकोप से उधर लीलावती पर भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके घर में चोरी हो गई और चोर सारा धन
चुराकर ले गए। घर में खाने के लिए अन्न भी नहीं बचा। भूख-प्यास से व्याकुल होकर व्यापारी की
बेटी कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उस ब्राह्मण के घर में श्री सत्यनारायण भगवान् की व्रतकथा
हो रही थी। उसने भी वहां बैठकर व्रतकथा सुनी और प्रसाद लिया। घर लौटकर कलावती ने अपनी मां
लीलावती को सारी बात बताई। कलावती से श्री सत्यनारायण भगवान् की व्रतकथा की बात सुनकर
लीलावती ने भी व्रत करने का निश्चय किया। अगले दिन लीलावती ने अपने परिवार और आसपास के
लोगों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान् की पूजा की। पूजा के बाद सबको प्रसाद बांटकर स्वयं भी
प्रसाद ग्रहण किया। लीलावती ने अपने पति और दामाद के घर लौट आने की मनोकामना से श्री
सत्यनारायण भगवान् का व्रत किया था। लीलावती के विधिपूर्वक व्रत करने और प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान् ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूर्ण की। उन्होंने राजा चंदकेतु को स्वप्न में
दर्शन देकर कहा, ‘हे राजन्!व्यापारी और उसका दामाद बिल्कुल निर्दोष हैं। सुबह उठते ही दोनों को
मुक्त कर दो। उन दोनों का सारा धन भी वापस लौटा दो। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा
सारा वैभव नष्ट कर दूँगा। इतना कहकर श्री सत्यनारायण भगवान् अंतर्धान हो गए। प्रातः होते ही राजा
चंदकेतु ने अपने मंत्रियों और राजज्योतिषी को रात के स्वप्न की बात बताई तो सबने व्यापारी और
उसके दामाद को छोड़ देने के लिए कहा। राजा चंदकेतु ने तुरन्त उस व्यापारी और उसके दामाद को
छोड़ दिया। उनका सारा धन भी वापस कर दिया। इसप्रकार श्री सत्यनारायण भगवान् की अनुकम्पा से
व्यापारी और उसका दामाद दोनों खुशी-खुशी अपने नगर की ओर चल दिए।’