अथ कीलकम्‌



ॐ इस कीलक मन्त्र के शिव ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, श्री महासरस्वती देवता हैं, श्री जगदम्बा की प्रसन्नता के लिये सप्तश्लोकी पाठ में इसका विनियोग किया जाता है।

ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है।

बमार्कण्डेय जी ने कहा - विशुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है, तीनों वेद ही जिनके तीन दिव्य नेत्र हैं, जो कल्याण-प्राप्ति हेतु हैं तथा अपने मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट धारण करते हैं, उन भगवान् शिव को नमस्कार है| मन्त्रों का जो कीलक है अर्थात् मन्त्रों की सिद्धि में विघ्न उपस्थित करने वाले शाप के रूप में कील का जो निवारण करने वाला है, उस सप्तशती स्तोत्र को सम्पूर्ण रूप से जानना चाहिये (और जानकर उसकी उपासना करनी चाहिये), यद्यपि सप्तशती के अतिरिक्त अन्य मन्त्रों के जप में भी जो निरन्तर लगा रहता है, वह भी कल्याण का भागी होता है| उसके भी उच्चाटन आदि कार्य सिद्ध होते हैं तथा उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है; तथापि जो अन्य मन्त्रों का जप न करके केवल इस सप्तशती नामक स्तोत्र से ही देवी की स्तुति करते हैं, उन्हें स्तुति मात्र से ही सच्चिदानन्द स्वरूपिणी देवी सिद्ध हो जाती हैं॥

उन्हें अपने कार्य की सिद्धि के लिये मन्त्र, औषधि तथा अन्य किसी साधन के उपयोग की आवश्यकता नहीं रहती। बिना जप के ही उनके उच्चाटन आदि समस्त आभिचारिक कार्य सिद्ध हो जाते हैं| इतना ही नहीं, उनकी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुँयें भी सिद्ध होती हैं। लोगों के मन में यह शंका थी कि 'जब केवल सप्तशती की उपासना से अथवा सप्तशती को छोड़कर अन्य मन्त्रों की उपासना से भी समान रूप से सब कार्य सिद्ध होते हैं, तब इनमें श्रेष्ठ कौन-सा साधन है?' लोगों की इस शंका को सामने रखकर भगवान् शंकर ने अपने पास आये हुए जिज्ञासुओं को समझाया कि यह सप्तशती नामक सम्पूर्ण स्तोत्र ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है॥



तदन्तर भगवती चण्डिका के सप्तशती नामक स्तोत्र को महादेवजी ने गुप्त कर दिया। सप्तशती के पाठ से जो पुण्य प्राप्त होता है, उसकी कभी समाप्ति नहीं होती; किन्तु अन्य मन्त्रों के जप जन्य पुण्य की समाप्ति हो जाती है। अतः भगवान् शिव ने अन्य मन्त्रों की अपेक्षा जो सप्तशती की ही श्रेष्ठता का निर्णय किया, उसे यथार्थ ही जानना चाहिये| अन्य मन्त्रो का जप करने वाला पुरुष भी यदि सप्तशती के स्तोत्र और जप का अनुष्ठान कर ले तो वह भी पूर्णरूप से ही कल्याण का भागी होता है, इनमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो साधक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी को एकाग्रचित्त होकर भगवती की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसाद रूप से ग्रहण करता है, उसी पर भगवती प्रसन्न होती है; अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार सिद्धि के प्रतिबन्धक रूप कील के द्वारा महादेवजी ने इस स्तोत्र को कीलित कर रखा है|

जो पूर्वोक्त रीति से निष्कीलन करके इस सप्तशती स्तोत्र का प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारण पूर्वक पाठ करता है, वह मनुष्य सिद्ध हो जाता है, वही देवी का पार्षद होता है और वही गन्धर्व भी होता है| सर्वत्र विचरते रहने पर भी इस संसार में उसे कहीं भी भय नहीं होता। वह अपमृत्यु के वश में नहीं पड़ता तथा देह त्यागने के अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर लेता है| अतः कीलन को जानकर उसका परिहार करके ही सप्तशती का पाठ आरम्भ करें। जो ऐसा नहीं करता, उसका नाश हो जाता है। इसीलिये कीलक और निष्कीलन का ज्ञान प्राप्त करने पर ही यह स्तोत्र निर्दोष होता है और विद्वान पुरुष इस निर्दोष स्तोत्र का ही पाठ आरम्भ करते हैं| स्त्रियों में जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृष्टिगोचर होता है, वह सब देवी के प्रसाद का ही फल है। अतः इस कल्याणमय स्तोत्र का सदा जप करना चाहिये| इस स्तोत्र का मन्दस्वर से पाठ करने पर स्वल्प फल की प्राप्ति होती है और उच्चस्वर से पाठ करने पर पूर्ण फल की सिद्धि होती है। अतः उच्चस्वर से ही इसका पाठ आरम्भ करना चाहिये| जिनके प्रसाद से ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश तथा परम मोक्ष की भी सिद्धि होती है, उन कल्याणमयी जगदम्बा की स्तुति मनुष्य क्यों नहीं करते?





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