देव गुरू बृहस्पति पीत वर्ण के हैं। उनके सिर पर स्वर्ण मुकुट तथा गले में सुन्दर माला है। वे पीत वस्त्र धारण करते हैं तथा कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में क्रमशः - दण्ड, रूद्राक्ष की माला, पात्र और वरदमुद्रा सुशोभित है।
महाभारत आदिपर्व एवं तै. सं. के अनुसार बृहस्पति महर्षि अड़िग्रा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। ये अपने प्रकृष्ट ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ-भाग प्राप्त करा देते हंै। असुर यज्ञ में विघ्र डालकर देवताओं को भूखों मार देना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में देवगुरू बृहस्पति रक्षोघ्र मन्त्रों का प्रयोग कर देवताओं की रक्षा करते हैं तथा दैत्यों को दूर भगा देते हैं।
इन्हें देवताओं का आचार्यत्व और ग्रहत्व कैसे प्राप्त हुआ, इसका विस्तृत वर्णन स्कन्दपुराण में प्राप्त होता है। बृहस्पति ने प्रभास तीर्थ में जाकर भगवान् शंकर की कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शकंर ने उन्हें देवगुरू का पद तथा ग्रहत्व प्राप्त करने का वर दिया।
बृहस्पति एक-एक राशि पर एक-एक वर्ष रहते हैं। वक्रगति होने पर इसमें अन्तर आ जाता है। ऋग्वेद के अनुसार बृहस्पति अत्यन्त सुन्दर हैं। इनका आवास स्वर्णनिर्मित है। ये विश्व के लिये वरणीय हैं। ये अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें सम्पत्ति तथा बुद्धि से सम्पन्न कर देते हैं, उन्हें सन्मार्ग पर चलाते हैं और विपत्ति में उनकी रक्षा भी करते हैं। शरणागतवत्सलता का गुण इनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। देवगुरू बृहस्पति का वर्ण पीत है। इनका वाहन रथ है, जो सोने का बना है तथा अत्यन्त सुख कर और सूर्य के समान भास्वर है। इसमें वायु के समान वेग वाले पीले रंग के आठ घोड़े जुते रहते हैं। ऋग्वेद के अनुसार इनका आयुध सुवर्णनिर्मित दण्ड है।
देवगुरू बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से सात कन्याएँ उत्पन्न हुई-भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। तारा से सात पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं।
बृहस्पति धनु और मीन राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा सोलह वर्ष की होती है।