एक नगर में एक साहूकार रहता था उसके पास धन-धान्य, बाल गाोपाल की कोई कमी न थी । लेकिन साहूकारनी
कंजूस थी । वह कभी किसी भिखारी को भीख नहीं देती थी उसकी इस हरकत से सभी परेशान थे । एक बार ऐसा
संयोग हुआ कि एक पहुँचे हुए सिद्ध पुरूष उस साहूकारनी के यहां भिक्षा मांगने पहुँचे । उस समय वह साहूकारनी
अपना आँगन लीप रही थी, अतः सिद्ध महाराज से कहने लगी, महात्मा इस समय तो मैं काम कर रही हूँ । मुझे
अवकाश नहीं है। आप फिर दर्शन दीजिएगा । साधु बाबा दुआ देते हुए चले गये। कुछ दिनों बाद वे पुनः पधारे-उस
समय साहूकारनी अपने पोते को खिला रही थी । अतः उसने भिक्षा देने में फिर असमर्थता दिखाकर, साधु बाबा को
फिर कभी अवकाश के समय आने को कहा । इस बार भिक्षुक का माथा ठनका। उसे साहूकारनी उस समय भी घर
के किसी काम में अपने को व्यस्त रखने की कोशिश कर रही थी। साधु बाबा चिढ़ गये । उन्होंने साहूकारनी से कहा
कि मैं तुम्हें कुछ उपाय बताता हूँ । यदि तुम अवकाश ही अवकाश चाहती हो तो बृहस्पति को देर से उठा करो, सारे
घर में झाडू लगाकर कूड़ा एक ओर इकट्ठा करके रख दिया करो, उस दिन घर में चैका न लगाया करो । स्नानादि
करने वाले इस दिन हजामत अवश्य बनवाया करें, भोजन बनाकर चूल्हे के पीछे रख दिया करो, शाम को काफी अन्धेरा
छा जाने के बाद दीपक बत्ती जलाया करो तथा इस दिन भूलकर भी न तो पीले वस्त्र धारण किया करो और न ही कोई
पीली चीज खाया करो। साधू के चले जाने के बाद साहूकारनी वैसा ही करने लगी धीरे-धीरे बृहस्पतिवार की उपेक्षा
के अशुभ परिणाम उसके घर मे उजागर होने लगे । इसके एक सप्ताह बाद वही साधु बाबा भिक्षा के लिए पुनः पधारे ।
उस समय साहूकारनी हाथ पर हाथ धरे खाली बैठी थी । बाबा ने भिक्षा माँगी तो वह फुट-फुटकर रोती हुई कहने
लगी, महात्मा ! मैं आपको भिक्षा कहां से दूं अब तो घर दर्शन करने के लिए भी अन्न के दाने नहीं हैं । साधु बाबा
बोले , माई ! तेरी माया समझ में नहीं आती । पहले तो तेरे घर में सब कुछ था, मगर फिर भी तु भिक्षुक को भीख
नहीं देती थी, क्योंकि उन दिनों घर के काम धन्धों से तुझे फुर्सत नहीं थी । और अब तो फुर्सत ही फुर्सत है । फिर
भी तू दान देने में आनाकानी करती है ।
अब तो साहूकारनी को समझते देर न लगी कि सामने खड़े बाबा सर्वज्ञ और सिद्ध पुरूष है। उसने उनके चरण
पकड़कर पिछले व्यवहार के लिए क्षमा माँगी और वायदा किया कि यदि आपकी कृपा से घर धन धान्य से भर पुर हो
गया तो वह कभी किसी भिक्षुक को खाली नहीं जाने देगी । साधु बाबा को दया आ गई। वे बोले-बृहस्पतिवार को
तड़के ही उठकर स्नानादि मैं निवृत होकर अपने घर का कोई आदमी हजामत न बनवायें और उस दिन विशेष रूप
से भूखों को भोजन करवायें । यदि तुम ऐसा करोगी तो जल्दी ही तुम्हारे दिन फिर जायेंगे और तुम्हारा घर फिर
धन-धान्य से भरपूर हो जायेगाा । साहूकारनी ने वैसा ही किया। कुछ दिनों में उसके भले दिन फिर लौट आये। जैसे
दिन बृहस्पति जी ने उसके फेरे, ऐसे ही वह हम सबके शुभ दिन शीघ्र ही लायें ।
काफी पुरानी बात है । एक दिन देवाधिदेव इन्द्रदेव अपने सोने से जडे़ सिंहासन पर विराजमान थे। अनेकानेक देव,
किन्नर ऋषि आदि उनके दरबार में उपस्थित होकर उनकी स्तुतियों का गान कर रहे थे। आत्म प्रशंसा सुनते सुनते
इन्द्र को गर्व हो गया, वे अपने को सर्वशक्तिमान समझने लगे। ठीक इसी अवसर पर देव गुरू की बृहस्पति जी दरबार
में पधारे । इन्द्र दरबार के सभी सभासद देव गुरू की अभ्यर्थना में सादर उठकर खडे़ हो गये। मगर अभिमान के मध
में इन्द्र अपने सिंहासन पर ही जमा रहा। बृहस्पति देवता को इन्द्र का गर्व समझते देर नहीं लगी । इन्द्र की इस
अवज्ञा को उन्होंने अपमान समझा और वे क्रोधित होकर वहां से लौट आए। बृहस्पति देवता के लौटते ही इन्द्र को
अपनी गलती का अहसास हो गया वह अपने किये गर्व पर पछताने लगा। उसने उसी क्षण गुरूदेव के चरणों में
उपस्थित होकर क्षमा मांगने का निश्चय किया। बृहस्पति देव अपने तपोबल से इन्द्र के इरादे को जानकर अपने लोक
को चले गए। इन्द्र उनके लोक से निराश होकर लौट आया।
उन दिनों इन्द्र का शत्रु वृषपर्वा था। जब उसे देवगुरू की रूष्टता का ज्ञान हुआ तो उसने देवलोक पर चढ़ाई करने का
सही अवसर जानकर दैत्य गुरू शुक्राचार्य से परामर्श किया। उन्हें वृषपर्वा की बात जंच गई। शुक्राचार्य की आज्ञा और
वृषपर्वा के नेतृत्व में दैत्य सेना ने इन्द्रलोक को घेर कर ऐसी मार लगाई कि इन्द्र देव को छठी का दूध याद आ गया।
हारकर वे सिर पर पैर रखकर ब्रहमा जी की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने इन्द्र को त्वष्टा के पुत्र विश्वरूपा की
शरण में जाने को कहा ।
विश्वरूपा अपने समय का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी विज्ञानी ब्राह्मण था। इन्द्र ने जब अनेक प्रकार से विश्वरूपा की वन्दना
की तो वे बड़ी कठिनाई से देवराज के पुरोहित बनने को तैयार हुए । विश्वरूपा ने, पिता की आज्ञा प्राप्त कर,
देवराज का आचार्यत्व स्वीकार कर ऐसा यत्न किया कि देवराज को विजय प्राप्त हुई। वे पुनः आसन पर विराजमान
हुए । विश्वरूपा के तीन मुख थे । प्रथम से वे सोमवल्ली लता के रस का पान करते थे, दूसरे मुख से मदिरा पीते
थे और तीसरे मुख से अन्न जल ग्रहण करते थे । विजयी देवराज ने विश्वरूपा के आचार्यत्व में यज्ञ करने की इच्छा
प्रकट की तो वे देवराज को यज्ञ कराने लगे। यज्ञ के दौरान अनेक दैत्यों ने विश्वरूपा से एकान्त में सम्र्पक स्थापित
करके कहा, आपकी माता दैत्याकन्या है। इस कारण आपका कत्र्तव्य है कि प्रत्येक तीसरी आहुति देते समय आप नाम
अवश्य ही ले लिया करें। विश्वरूपा को दैत्यों की बात समझ में आ गई। वे यज्ञ की हर तीसरी आहुति दैत्यों के
नाम समर्पित करने लगे। फलतः देवताओ का तेज घटने लगा। देवराज को जब सही वस्तु स्थिति का पता लगा तो वे
इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने विश्वरूपा के सिर काट दिए विश्वरूपा के मदिरा पीने वाले मुख से भंवरा बना,
सोमवल्ली पीने वाले मुख से कबूतर बना और अन्न खाने वाले मुख से तीतर बना। विश्वरूपा की हत्या करते ही
ब्रह्म-हत्या के कारण देवराज का स्वरूप ही बदल गया । विश्वरूपा की हत्या का पाप बड़ा भारी था । देवताओं के
एक वर्ष तक पुरश्चरण करने पर भी जब ब्रह्म-हत्या का पाप न कटा तो देवराज ने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी
की स्तुति की । उन्हें दया आ गइ्र्र । वे बृहस्पति देवता को साथ लेकर वहां पधारे । दोनों को इन्द्र और देवताओं
पर दया आ गई । उन्होंने ब्रह्म-हत्या के पाप के चार भाग किए । उसका एक भाग उन्होंने धरती को सौंपा ,फलतः
धरती में ऊँचे -नीचे खड्ढे हो गए । तभी ब्रह्मा जी ने धरती को वरदान दिया कि ये गड्ढे अपने आप भर जाया
करेंगे । पाप का दूसरा भाग वृक्षो को सौंपा गया, जिसके कारण उनका दुःख गोंद बनकर बहता रहता है । ब्रह्मा
जी के वरदान के कारण केवल गूगल का गोंद पवित्र माना जाता है । पाप का तीसरा भाग यौवन प्राप्त स्त्रियों को
दिया गया, जिसके कारण वे प्रत्येक मास अशुद्ध होकर प्रथम दिन चाँडालिनी, दूसरे दिन ब्रहमाघातिनी और तीसरे
दिन धोबिन रहकर चैथे दिन शुद्ध होती हैं पाप का चैथा भाग जल को दिया गया। जिसके कारण उस पर फैन
और सिवाल आदि आता है । इसी के साथ जल को वरदान दिया गया कि तू जिस पर पड़ जायेगा । उसका भार
बढ़ जायेगा । इस प्रकार बृहस्पति जी इन्द्र से सन्तुष्ट हुए और उनकी तथा ब्रह्मा जी की कृपा से इन्द्र के जैसे
पाप-ताप कटे, वैसे बृहस्पति देवता हम सब पर कृपा करें।