एक दिन सातों ग्रह सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र व शनि बैठे हुए इस बात का विवाद छेड़
बैठे कि समस्त ग्रहों में कौन सा ग्रह सबसे बड़ा है ? इसका निर्णय करने के लिए सभी ग्रह राजा
इन्द्र के दरबार में उपस्थित हुए । इन्द्र ने सोचा कि यदि किसी ग्रह को मैं महान कह दूंगा तो शेष
सारे आठ ग्रह मुझसे नाराज हो जायेंगे । इसलिए वह हाथ जोड़ कर कहने लगा, ‘देवगण’ मैं आप
लोगो का निर्णय करने में असमर्थ हूं इसलिये आप पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य के पास जाइये । वे
बड़े न्याय प्रिय राजा हैं ।’’ देवताओं को इन्द्र की बात जंच गई । वे सभी विक्रमादित्य के दरबार
में उपस्थित हुए । उन दिनो विक्रमादित्य उज्जैन में राज्य कर रहे थे । सभी देवता जब उनके
दरबार में आये तो वे उनके स्वागत में उठ खड़े हुए और उनसे दर्शन देने का उद्देश्य पूछा । यह
जानकर कि मुझे इनमें से किसी एक को बड़ा और किसी एक को छोटा बताना है, राजा धर्म संकट
मे पड़ गये मगर वह कत्र्तव्यनिष्ठ राजा थे, इसलिये उन्होने न्याय करने का निश्चय किया ।
दूरदर्शी विक्रमादित्य किसी एक देवता को अपने मुँह से छोटा या बड़ा कहना नहीं चाहते थे ।
इसलिये उसने प्रत्येक ग्रह के आसन उसी की प्रिय-धातु के बनवाकर इस क्रम में रख दिये कि सोने
का आसन सबसे पहले आया लोहे का सबसे बाद में । फिर उन देवताओं से कहा कि वे
अपने-अपने आसन पर पधारें और आसनों के क्रम से ही ग्रहों में अपना पद जानें ।
आसन सोने, चांदी , कांसी, पीतल, सीसर, जस्ता, अभ्रक और लोहे के थे । लोहे का आसन
सबसे बाद में था। वह शनि का आसन था। शनिदेव समझ गये कि विक्रमादित्य ने उन्हे सबसे
छोटा कहा है, अतः वे क्रोधित होकर बोले ‘राजन‘ तुम मेरे पराक्रम को नहीं जानते । सूर्य एक
राशि पर एक महीना, चन्द्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ मास, बृहस्पति तेहर महीने, बुध और शुक्र
केवल एक मास और राहू तथा केतु उल्टे चलते है । सिर्फ अट्ठारह मास तक राशि पर रहते हैं,
परन्तु मैं एक राशि पर ढाई से साढ़े सात साल तक रहता हूँ । राम को साढ़े साती आई तो उन्हें
राज्य के स्थान पर बनवास मिला और रावण पर जब शनिदेव की साढ़सती आई तो उसके उसके
कुल का ही सत्यानाश हो गया । अब तेरी बारी है ऐसा कह शनिदेव वहाँ से चले गए ।
समयानुसार राजा विक्रमादित्य पर साढ़े सती आई तब शनिदेव घोड़ो का सौदागर बन कर कर
उज्जैन में पधारे उनके मायावी घोडे़ बहुत ही मनभावन थे । राजा नें घोडो के सौदागर के आने का
समाचार सुना तो अश्वपाल को उन्हे देखने और छाँटने के लिए भेजा । उन घोड़ो में एक घोडा
इतना सुन्दर था कि राजा की इच्छा उसकी सवारी करने को ललचा गई ।
राजा जैसे ही घोडे़ की पीठ पर बैठा, वैसे ही घोड़ा हवा में बातें करता हुआ ऐसा दौड़ा कि कुछ ही
क्षणों में राजा को बीहड़ जंगल में पहुँचाकर देखते ही देखते अन्तध्र्यान हो गया ।
अब तो राजा विक्रमादित्य जंगलो में मारे-मारे फिरने लगे । भटकते-भटकते वे एक नगर में पहुँच
गए । वहाँ उनकी भेंट नगर सेठ से हुई । सेठ ने उन्हे भूखा-प्यासा देखकर खाना खिलाया और
दुकान पर एक ओर बैठ जाने दिया । शनि महाराज की कृपा से उस दिन सेठ को खूब आमदनी
हुई । सेठ ने राजा को भाग्यवान पुरूष समझकर अपने वहाँ रखने का फैसला किया ।
सेठ राजा को अपने घर ले गया । जिस समय राजा भोजन कर रहा था उस कमरे की खूंटी पर
नौलखा हार टंगा था । राजा की जैसे ही उस हार पर नजर गई, खूंटी उस हार को देखते ही
निगल गई । कुछ देर बाद सेठ कमरे में आया उस खुंटी पर हार न पाया तो उसने राजा को हार
की चोरी के अपराध में पकड़वा दिया । न्यायाधिपति ने राजा के दोनो हाथ पैर काट़ने की आज्ञा
दी। जब राजा चैंरगिया बन गया तो उस नगर के एक तेली को राजा पर दया आ गई । वह उसे
उठा लाया । उसने उसे कोल्हू के पीछे बिठा दिया ताकि बैल हांक सके । साढे सती बीतने में कुछ
काल ही बचा था कि चैंरगिया को वर्षा ऋतु में मल्हार राग गाने की सूझी । रात की खामोशी में
उसकी मनमोहनक ध्वनि राजकुमारी के कानों में पड़ी । सुरीली आवाज को सुनते ही वह उस पर
मोहित हो गई । उसने दासी को भेज उसका अता-पता मालूम कर लिया । ‘रागी चैरंगिया‘ है
सुनकर राजकुमारी ने प्रण कर लिया कि अगर वह विवाह करेगी तो उसी से करेगी, वरना आजीवन
अविवाहित रहेगी । सुबह जब राजा रानी को मालूम हुआ तो उन्होने समझाने की कोशिश की ।
मगर राजकुमारी अपना प्रण तोड़ने को तैयार नहीं थी ।
विवश होकर राजा रानी को मानना पड़ा और राजा ने तेली को बुला कर आदेश दिया कि वह
चैंरगिया की शादी मेरी लड़की के साथ करने का इन्तजाम करें, राजाज्ञा वश तेली को चैंरगिया की
शादी का प्रबन्ध करना पड़ा । राजकुमारी और चैरंगिया का विवाह करा दिया गया । वह साढे़सती
की अंतिम राशी थी । उस रात के आधा बीतते ही चैरंगिया को शनिदेव स्वपन में दिखाई दिए
और बोले, राजन तुमने मुझे छोटा कहने का दण्ड पा लिया । राजा ने हाथ जोड़कर क्षमा मांगते हुए
शनिदेव से प्रार्थना की कि जैसा दुःख आपने मुझे दिया है, भविष्य में ऐसा दुःख किसी और को न
दीजियेगा । शनिदेव ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली ।
आँख खुलने पर चैरंगिया ने देखा कि उसके दोनों हाथ पैर बिल्कुल ठीक हो गए हैं । प्रातः उठने
पर भी जब अपने पति को पूर्ण स्वस्थ देखा तो उसकी प्रसन्नता और खुशी की सीमा न रही ।
राजा भी यह जानकर बहुत खुश हुआ । होते-होते यह समाचार नगर सेठ को भी मिला तो उसने
विक्रमादित्य की सेवा में उपस्थित होकर क्षमा मांगी और उन्हें अत्यन्त सम्मान के साथ अपने घर
खाने पर लिवा ले गया । राजा विक्रमादित्य जब खाना खा रहे थे तब लोगों ने आश्चर्य देखा कि
खूंटी हार उगल रही थी । यह कौतुक देखकर नगर सेठ एक ऐसा अभिभूत हुआ कि उसने अपनी
कन्या का विवाह राजा विक्रमादित्य के साथ अत्यन्त धूमधाम से कर दिया । कुछ दिनो के पश्चात्
जब राजा विक्रमादित्य अपनी राजधानी में आए तो लोगों को बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने राजा
और दोनों रानियों का स्वागत किया ।
पुनः राज्य प्राप्त कर लेने के बाद, राजा ने राज्य में घोषणा करा दी कि सभी प्रजाजन प्रत्येक
शनिवार को व्रत रखकर उनकी कथा व पूजन किया करें ।