सोलह सोमवार व्रत कथा


एक समय की बात है। एक बार भगवान भूतनाथ अपनी प्राणप्रिये पार्वती जी के साथ संसार भ्रमण के लिए पधारे। घूमते -घूमते वे विदर्भ देश में अमरावती नामक नगरी में पहुंचे। वहां की शोभा उन्हें भा गई। वे एक शिवालय में ठहर गए।

एक दिन पार्वती जी की इच्छा चैसर खेलने की हुई। शंकर भगवान और भगवती पार्वती जिस समय चैसर खेल रहे थे, तभी शिवालय का पुजारी वहां आ गया। पार्वती जी ने पुजारी से पूछा -बताओ, इस बाजी में कौन जीतेगा ? ब्राह्मण ने बिना सोचे समझे कह दिया - भगवान शंकर ! थोड़ी ही देर बाद बाजी समाप्त हो गई और जीती - भगवती पार्वती। ब्राह्मण के बिना विचारे भविष्यवाणी करने पर माता को गुस्सा आ गया। यद्यपि शंकर भगवान ने अनेक समझाया, पर वे न मानीं और उन्होंने उस ब्राह्मण को कोढ़ी हो जाने का शाप दे दिया। कोढ़ी होकर ब्राह्मण बहुत दुःखी था। काफी दिन बीत चुके थे। एक दिन शिवालय में देवलोक की अप्सरायें पधारीं। ब्राह्मण को कोढ़ से दुःखी देखकर उन्हें दया आ गई। उन्होंने ब्राह्मण से कहा- तुम षोड़श (सोलह) सोमवारों का यथाविधि व्रत करों , तुम्हारे सारे क्लेश कट जायेंगे। विधि यह है कि सोमवार के दिन स्नान करके शुद्ध मन से स्वच्छ वस्त्र धारण करो। रसोई के समय आधा सेर स्वच्छ और साफ गेहूं का आटा लें, उसके तीन अंगी बनाओ। फिर घी, गुड़ , दीप , नैवेद्य , पुंगीफल , बेलपत्र व जनेऊ जोड़ा , चन्दन , अक्षत पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान शंकर की पूर्ण श्रद्धा से पूजा करके तीन अंगियों में से एक शंकर भगवान का सादर समर्पित करके, एक को उपस्थित जनों में बाँट कर शेष को स्वयं प्रसाद रूप में ग्रहण करो। इसी प्रकार जब सोलह सोमवार व्रत रख चुके तो सत्रहवें सोमवार को पाव सेर पवित्र आटे की बाटी बना कर उसमें आवश्यकतानुसार घी और गुड़ मिला कर चूरमा बनाओ। उसी का शंकर भगवान को भोग लगा कर, शेष भक्तजनों, कुटुम्बी जनों और आपस में बाँट लो। ऐसा करने से, शंकर भगवान की कृपा से तुम शीघ्र ही शोक से मुक्त हो जाओेगे। अप्सरायें वापिस स्वर्ग पधार गई।

ब्राहमण ने पूर्ण श्रद्धा के साथ षोड़श सोमवार का व्रत रखा, फलतः कुछ ही समय में वह रोग-शोक से मुक्त होकर धन धान्य से सम्पन्न हो गया। कुछ दिनों बाद उसी शिवालय में शंकर - पार्वती पुनः पधारे ब्राह्मण को रोग मुक्त देखकर पार्वती जी को आश्चर्य हुआ। उन्हें जब यह प्रदोष षोड़श सोमवारों के व्रत का चमत्कार ज्ञात हुआ तब उन्होंने भी अपने रूठे पुत्रः कार्तिकेय को मनाने के लिए षोड़श सोमवारों का व्रत रखने का निश्चय किया। उस व्रत के कारण कार्तिकेय माता के आज्ञाकारी बन गए तब उन्होंने इसको जानना चाहा। जब उसे पता लगा कि मेरे मनाने के कारण सोलह सोमवार के व्रत रखे थे तो उसने भी अपने रूठे ब्राह्मण मित्र को मनाने के लिए सोलह सोमवारो का व्रत करने का प्रण किया। व्रत पूरा करने के बाद, वह एक कार्य से दूसरे राज्य में गया था। उस राजा ने प्रतिज्ञा की थी कि मेरी सजी-संवरी हथिनी जिस युवक के गले में पुष्प की माला डाल देगी, उसी के साथ मैं अपनी इकलोती राजकुमार का विवाह करूगां। बा्रहमण भी स्वयंवर सभा में गया। हथिनी ने उसी के गले में जयमाला डाल दी। राजा ने बड़ी धूम-धाम के साथ अपनी लड़की का विवाह ब्राह्मण कुमार से कर दिया। राजकुमारी को, विवाह के काफी वर्ष बाद जब यह पता लगा कि षोड़श सोंमवारों के व्रत के शुभ फल स्वरूप ब्राह्मण कुमार उसे पाने मे सफल हुआ था तो उसने सुपुत्र की लालसा से षोड़श सोमवारों का व्रत रखा सुप्रभाव से राजकुमारी के सर्वगुण सम्पन्न सुपुत्र ने जन्म लिया। युवा हो जाने पर, पुत्र को जब यह पता लगा कि षोड़श सोमवारों के व्रत का परिणाम है तो उसने राज्याधिकार पाने के लिए षोड़श सोमवारों का व्रत रखा। व्रत पूरे होते ही उस युवक को एक राजा के दूतों ने अपने देश की राजकुमारी के लिये वर लिया।

उस देश का राजा वृद्ध हो चुका था, अतः विवाह के बाद शीघ्र ही उसका स्र्वगवास हो गया और ब्राह्मण कुमार राज पाने में सफल हो गया। राज्य पाने के बाद, ब्राह्मण कुमार ने शिव पूजन के लिए सामग्री तैयार करने के लिए राजकुमारी से कहा। मगर राजकुमारी ने अपनी दासियों से वह तैयार करा दी। ब्राहमण कुमार जब पूजा समाप्त कर चुका तभी भविष्यवाणी हुई कि या तो वह अपनी पत्नी को त्याग दे । वरना तुम्हारा राजपाट समाप्त हो जाएगा। राजा को भविष्यवाणी पर दुःखद आश्चार्य हुआ , मगर मंत्री परिषद् के परामर्श पर उसे रानी को त्याग ही देना पड़ा। भटकती हुई रानी दूसरे नगर में पहुँची। उसके वस्त्र फट गए थे। उसकी नजर एक बुढ़िया पर पड़ी। वह अपना कता सूत बेचने जा रही थी। रानी ने सूत की गठरी अपने सिर पर रख ली। तभी बड़े जोर की आध्ंाी आई और रानी के सिर से सूत की गठरी को उड़ा कर ले गई । जब बुढ़िया ने रानी को धक्का देकर अपने पास से भगा दिया । इसके बाद रानी आश्रय की खोज में एक तेली के घर गई। लेकिन इसके वहां जाते ही तेली के समस्त बर्तन चटकने लगे तो तेली ने भी इसे धक्का देकर वहां से भगा दिया ।इस प्रकार रानी दर-दर दुतकारी जाती। अन्त में वह एक ग्वाले के हाथ पड़ी। वह इसे एक शिवालय के गुसाई के पास ले गया। रानी ने गुसाई जी से पुरी आप बीती सुनाई। उन्हें रानी पर दया आ गई । उन्होंने रानी को अपने आश्रम में आश्रय दिया। रानी जिस चीज को छूती वह बिगड़ जाती , पानी और भोजन में कीड़े पड़ जाते । इस पर गुसाई जी भी दुःखी हुए। उन्होने शंकर भगवान की अनेक प्रकार से विनती की और रानी को षोड़श सोमवारों का व्रत रखने का आदेश दिया । रानी ने श्रद्धा और भक्ति के साथ सोलह सोमवारों का व्रत रखा सत्रहवें सोमवार के बाद , ब्राहमण कुमार को स्वप्न आया दूसरे ही दिन उसने दूतों को रानी की खेाज में दौड़ाया। दूत रानी को खोजते हुए गुसाई के आश्रम में जा पहुँचे । मगर गुसाई जी ने रानी को विदा करने से इन्कार कर दिया। राजा को जब पूरा समाचार ज्ञात हुआ तो वह स्वंय गुसाई जी की सेवा में उपस्थित हुआ। रानी ने अपने पति को पहचान लिया। गुसाई जी ने सभी हाल सुनकर , शंकर के कोप की बात जानकर , रानी को राजा के साथ विदा कर दिया । राजा - रानी जब राजधानी में पहुँचे तो प्रजा ने बड़े उत्साह के साथ उनका स्वागत किया। राजा ने प्रजा हितकारी अनेक काम किये। शंकर की कृपा से राजा -रानी ने अनेक वर्ष तक राजपाट का सुख भोगा और काफी लम्बी आयु तक सुख-पूर्वक संसार भोग कर शिवलोक को प्रस्थान किया।


अथ सोमवार की आरती

आरती करत जनक कर जोरे ।। बडे़ भाग्य रामजी घर आए मोरे ।। टेक ।।
जीत स्वयंबर धनुष चढ़ाये सब भूपन के गर्व मिटाए ।।
तोरि पिनाक किए दुइ खण्डा । रघुकुल हर्ष रावण भय शंका ।।
आई हैं सिय संग सहेली । हरैष निरख वरमाला मेली ।।
गज मोतियन के चैक पुराए । कनक कलश और भरि मंगल गाए ।।
कंचन थाल कपूर की बाती । सुर नर मुनि जन आये बाराती ।।
फिर भांवरि बाजा बजै सिया सहित रघुबीर विराजै ।।
धनि-धनि राम लखन दोऊ भाई । धनि धनि दशरथ कौशल्या माई ।।
राजा दशरथ जनक विदेही । भरत शत्रुधन परम सनेही ।।
मिथलापुर में बजत बधाई । दास मुरारी स्वामी आरती गाई ।।


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